1959 में स्थापित फारविसगंजकॉलेज, फारबिसगंज का इतिहास अभावों और संघर्षों के बीच अंधेरे में जलती मशाल के समान रहा है । सुदीर्ध् काल से शिक्षा का प्रकाश फैलाने वाला यह महाविद्यालय फारबिसगंज की बलुआही जमीन पर नखलिस्तान की तरह है । मिथिला का यह छोर नेपाल और बंगाल को भली भांति छूता है । पूर्वी नेपाल का विराटनगर तथा दार्जिलिंग यहॉ से बहुत दूर नहीं है । ऐसे घनघोर ग्रामांचल के बीच स्थित यह महाविद्यालय बंगाल और मिथिला की संस्क़ति को अपने में समेटे प्रस्फुटित कमल के समान अपने सौन्दर्य से लोगो को आकर्षित करता आ रहा है ।
विश्वविख्यात साहित्यकार रेणु और उनके साहित्यिक, राजनैतिक गुरू पं0 रामदेनी तिवारी द्विजेनी की यह धरती उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उपेछित सी थी । 1959 में बुदिजीवियों, प्रबुदध् नागरिकेां, कर्मठ नवयुवकों के अथक परिश्रम और सत्प्रयास से बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार पचास हजार रूपये जमाकर स्नातक तथा अन्तर स्नातक कला एवं वाणिज्य के अध्यापन कार्य का सृाारम्भ किया गया ।
प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी व शिक्षानुरागी पूर्व विधायक श्री औकाय मंढल जी ने उच्च् शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक कदम उठाया और उन्हीं के एकाकी सत्प्रयास से इस महाविद्यालय की स्थापना हुई । 1957 में मंउल जी की कॉलेज योजना को सहयोग, समर्थन देने वाले तदर्थ समिति के सदस्यों में डा0 अलख निरंजन, श्रीयामिनी कान्त विश्वास, श्री गंगा प्रसाद सिंह आदि भी स्मरणीय हैं ।
महावितद्यालय के लिए अनेंक स्थलों का चयन करने के उपरान्त वर्तमान स्थल को सर्वाध्कि उपयुक्त समझा गया । इस भूमि के दानकर्ता श्री दयानंद साह के प्रति आभार प्रकट करते हुए उनके इस पुनीत दानकार्य के लिए उन्हे शासी निकाय का सदस्य बनाया गया। भूमि दाताओं में श्री चेपटू यादव, कटहरा, श्री सच्चिदानंद ठाकुर, ढोलबज्जा, श्री ध्यानी वैश्यंत्द्त्री, क्ठहरा एवं श्रीमती फुलेश्वरी देवी, पोटिया की उदारता भी स्मरणीय है । महाविद्यालय का वर्तमान स्वरूप पूर्व प्रधानाचार्य डा0 धनेश्वर झा के अथक परिश्रम का ही परिणाम है ा इस संदर्भ में हम श्री भोला पासवान शास्त्री के सहयोग को भी नहीं भूल सकते हैं जो 1959 में बिहार के कल्याण मंत्री के रूप में मंडल जीे के बुलावे पर आये थे। मंडल जी द्वारा मांग करने पर कल्याण छात्रावास का उन्होंने वचन दिया था और दो साल के भतर छात्रावास की दीवारें खड्ी हो गर्ह थी ा उसी पर तिरपाल लगाकर 23 मार्च 1963 को कॉलेज की पढ्ाई श्री धनेश्वर झा द्वारा अपनेी वर्तमान भूमि पर शुरू की गई थी । शास्त्री जी का यह त्वरित कार्य भूलने योग्य नहीं है ा कॉलेज के विकास में पर्वू प्रधानाचार्य डा0 राम मनोहर राय का अवदान सदा स्मरणीय रहेगा । पूर्व प्रधनाचार्य डा0 स़ष्टिधर झा 'विजय' के अथक प्रयास के कारण पूर्व विधायक श्री मायानन्द ठाकुर के सौजन्य से महाविद्यालय की चारदीवारी का निर्माण हुआ जो इसके सौन्दर्य में चार चांद लगा रहा है। प्रो0 डा0 वीरकेश्वर प्रसाद सिंह, विधान पार्षदद् के कोष से विज्ञान'भवन का जीर्णोदद्धार हुआ । अतएव महाविद्यालय उनका आभारी है । प्राक़तिक सुरम्य वातावरण के मध्य अवस्थित इस शिक्षा मंदिर के विकास की अनेक संभावनाएं हैं ।
स्थापना के समय प्रारंभ में तीन'तीन आइ0 ए0 एस0 पदाधिकारियों ने निष्पक्ष रूप से अन्तर्वीक्षा के आधार पर सात शिक्षकों की नियुक्ति का अनुमोदन किया था ।
04 जून 1959 से 23 मार्च 1963 (3 वर्षों ) तक बाल मध्य विद्यालय के छोटे प्रांगण में नगरपालिका के सहयोग से प्रात काल कला संकाय के वर्ग एवं संध्याकाल वाणिज्य संकाय के वर्ग चलाए जाते रहे । कुछ शिक्षकों को सुबह-शाम महाविद्यालय का काम करना पड.ता था । अध्किाधिक काम करना हमारी विशेषता रही है।
कोशी-पीड्ति क्षेत्र के नागरिकों के उत्साह एवं उच्च मनोबल के कारण ही कॉलेज दिनानुदिन विकसित होता रहा । इससे पूर्व इस विस्त़त बालुकामय भूमि के चारों ओर उच्च शिक्षा का केन्द्र नहीं था । सव्र्प्रथम तत्कालीन पूणिर्या जिले के उतरांचल में इसी कॉलेज की स्थापना हुई और शिक्षा के क्षेत्र में यहां के पिछड.े लोगों को ज्ञान का प्रकाश मिला ।
यहां का उतम परीक्षाफल, अनुशासन, संगठन एवं शिक्षणेतर कार्यकलाप इस क्षेत्र के लिए प्रशंसनीय रहा है । छात्रों एवं शिक्षकों के सहयोग से कॉलेज का विकास दिनानुदिन हो रहा है । यहां के शिक्षक राज्य सरकार की सेवा से लेकर विदेशी सेवा तक में कार्यरत रहे ।
प्रो0 (डा0) सतीन्द्र कुमार